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उ॒त्थाय॑ बृह॒ती भ॒वोदु॑ तिष्ठ ध्रु॒वा त्वम्। मित्रै॒तां त॑ऽउ॒खां परि॑ ददा॒म्यभि॑त्याऽए॒षा मा भे॑दि ॥६४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त्थाय॑। बृ॒ह॒ती। भ॒व॒। उत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। ध्रु॒वा। त्वम्। मित्र॑। ए॒ताम्। ते॒। उ॒खाम्। परि॑। द॒दा॒मि॒। अभि॑त्यै। ए॒षा। मा। भे॒दि॒ ॥६४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:64


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि कन्ये ! (त्वम्) तू (ध्रुवा) मङ्गल कार्य्यों में निश्चित बुद्धिवाली और (बृहती) बड़े पुरुषार्थ से युक्त (भव) हो। विवाह करने के लिये (उत्तिष्ठ) उद्यत हो (उत्थाय) आलस्य छोड़ के उठकर इस पति का स्वीकार कर। हे (मित्र) मित्र ! (ते) तेरे लिये (एताम्) इस (उखाम्) प्राप्त होने योग्य कन्या को (अभित्यै) भयरहित होने के लिये (परिददामि) सब प्रकार देता हूँ (उ) इसलिये तू (एषा) इस प्रत्यक्ष प्राप्त हुई स्त्री को (मा भेदि) भिन्न मत कर ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - कन्या और वर को चाहिये कि अपनी-अपनी प्रसन्नता से कन्या पुरुष की और पुरुष कन्या की आप ही परीक्षा कर के ग्रहण करने की इच्छा करें। जब दोनों का विवाह करने में निश्चय होवे, तभी माता-पिता और आचार्य आदि इन दोनों का विवाह करें और ये दोनों आपस में भेद वा व्यभिचार कभी न करें, किन्तु अपनी स्त्री के नियम में पुरुष और पतिव्रता स्त्री होकर मिल के चलें ॥६४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उत्थाय) आलस्यं विहाय (बृहती) महापुरुषार्थयुक्ता (भव) (उत्) (उ) (तिष्ठ) (ध्रुवा) मङ्गलकार्येषु कृतनिश्चया (त्वम्) (मित्र) सुहृद् (एताम्) (ते) तुभ्यम् (उखाम्) प्राप्तव्यां कन्याम् (परि) सर्वतः (ददामि) (अभित्यै) भयराहित्याय (एषा) प्रत्यक्षप्राप्ता पत्नी (मा) निषेधे (भेदि) भिद्यताम्। [अयं मन्त्रः शत०६.५.४.१३-१४ व्याख्यातः] ॥६४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि कन्ये ! त्वं ध्रुवा बृहती भव, विवाहायोत्तिष्ठ, उत्थायैतं पतिं स्वीकुरु। हे मित्र ! त एतामुखामभित्यै परिददामि, उ त्वयैषा मा भेदि ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - कन्या वरश्च स्वप्रियं पुरुषं स्वकान्तां कन्यां च स्वयं परीक्ष्य स्वीकर्त्तुमिच्छेत्। यदा द्वयोर्विवाहकरणे निश्चयः स्यात्, तदैव मातापित्राचार्यादय एतयोर्विवाहं कुर्युरेतौ परस्परं भेदभावं व्यभिचारं च कदाचिन्न कुर्याताम्। किं तु स्वस्त्रीव्रतः पुमान् स्वपतिव्रता स्त्री च सङ्गतौ स्याताम् ॥६४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्रीने पुरुषाची व पुरुषाने स्त्रीची परीक्षा करून प्रसन्नतेने एकमेकांचा स्वीकार करण्याची इच्छा बाळगावी. जेव्हा दोघांचा विवाह करण्याचा निश्चय होईल तेव्हा माता-पिता, आचार्य इत्यादींनी त्या दोघांचा विवाह करावा. त्या दोघांचा आपापसात मतभेद होता कामा नये किंवा त्यांनी व्यभिचारही करता कामा नये. पुरुषाने स्त्रीच्या आधीन असावे व स्त्रीने पतिव्रता असावे. दोघांनी एकरूप बनून वागावे.